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Friday, March 18, 2011

भक्त पहलाद की जय

 भक्त पहलाद की जय -->प्रेमी सज्जन का कार्य सदा दुसरो के लिए हितकारी होता है! दुसरो के हित या कल्याण को ही वे अपना सबसे
बड़ा धर्म समझते है! जेसा कि गोस्वामी जी ने कहा है!
                पर हित सरिस धर्म नही भाई !''
अर्थात हे भाई दुसरो की भलाई करने के समान कोई धर्म नही है! वे फिर कहते है;
            परहित बस जिन्ह के मन माही ! तिन्ह कहू जग दुर्लभ कछु नाही !;
अर्थात जिनके मन में दुसरो की भलाई करने का विचार घर  किये रहता है, उनके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नही है!
सबसे सत्य ओर पिर्य बोलने वाले ओर सबका सदा कल्याण करने वाले सज्जन ही सबको पिर्य होते  है!  भक्त पहलाद भी इसी प्रकार के स्वभाव वाले थे! प्रभु को बहुत पिर्य थे!
इस प्रकार मन, वचन ओर कर्म से जो भक्त प्रभु की शरण में लगा रहता है, उसके ह्ध्दय में प्रभु का निवास हो जाता है! ओर वह
सदा के लिए सुखी हो जाता है!
  प्रबु की शरणागत जाने  से भक्त पहलाद का जीवन सफल हो गया!  जब भक्त पहलाद की बुहा ढूढा (होली का सही नाम ) पहलाद को जलाने आई, तब भक्त भगवान के शरणागत चले गये, अर्थात उनकी भक्ति में लीन हो गये ! उसी के प्रभाव से भक्त पहलाद बच गये,
परन्तु ढूढा जल गई, तब से ही ढूढा का नाम होली पड़ा!
अर्थात सत्य की एवं भगवान के भक्त की विजय हुई! इसलिए भक्त पहलाद  की जय कहो न कि होली कि शुभकामनाये !
इति शुभम
        पंडित सुरेन्द्र बिल्लोरे

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