यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै वैदै: सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यति यं योगिनो यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।
ब्रह्मा, वरुण, इंद्र, रुद्र और मरुतगण- दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते है, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगी जनध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुरगण (कोई भी) जिनके अंत को नहीं जानते उन (परमपुरुष नारायण) देवादिदेव को मेरा नमस्कार है।
कृष्ण, देवकीनंदन, यदुनंदन, गोपाल, नंदलाल, कन्हैया जो नाना प्रकार के नामों से भजें जाते हैं ऐसे विष्णु अवतार श्रीकृष्ण का जन्म भादौ कृष्ण की अष्टमी को हुआ। कृष्ण की भक्ति गोपियों जैसी विशुद्ध मन से की जानी चाहिए। गोपियां कृष्ण को नि:स्वार्थ प्रेम करती थी। सखा अर्जुन जैसे बनने की कोशिश करनी चाहिए।
जिन्होंने कृष्ण को सखा एवं ईश्वर दोनों रूपों में मान दिया और अनन्य विश्वास से अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया। निश्चित ही यदि आप सच्चे चित्त से कृष्ण भक्ति करते हैं, तो वह (कृष्ण) आपके सारे दुख-दर्द और पाप को हर लेते हैं एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
भगवान कृष्ण स्वयं कहते भी हैं-
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिधतति सिद्धये।
यत् तामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेन्ति तत्वत:।।
हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको यथार्थ रूप में जानता है।
परंतु भगवान कृष्ण की भक्ति किसी भी रूप में की जाए, ध्यान करके, भजन करके, जाप करके अथवा मानसिक, सच्चा भक्त उनको अवश्य प्राप्त करता है।
स्वयं कृष्ण कहते है- मेरे भक्त मुझे चाहे जैसे ही भजे, अंत में मुझको ही प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य जिस भाव से स्मरण करता है वह अवश्य ही प्रभु को उस रूप में पाता है।
मन्मना भव मभ्दक्तो मघाजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यासि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।
अर्थात् मुझमें मन लगा, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें स्थापित करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यति यं योगिनो यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।
ब्रह्मा, वरुण, इंद्र, रुद्र और मरुतगण- दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते है, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगी जनध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुरगण (कोई भी) जिनके अंत को नहीं जानते उन (परमपुरुष नारायण) देवादिदेव को मेरा नमस्कार है।
कृष्ण, देवकीनंदन, यदुनंदन, गोपाल, नंदलाल, कन्हैया जो नाना प्रकार के नामों से भजें जाते हैं ऐसे विष्णु अवतार श्रीकृष्ण का जन्म भादौ कृष्ण की अष्टमी को हुआ। कृष्ण की भक्ति गोपियों जैसी विशुद्ध मन से की जानी चाहिए। गोपियां कृष्ण को नि:स्वार्थ प्रेम करती थी। सखा अर्जुन जैसे बनने की कोशिश करनी चाहिए।
जिन्होंने कृष्ण को सखा एवं ईश्वर दोनों रूपों में मान दिया और अनन्य विश्वास से अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया। निश्चित ही यदि आप सच्चे चित्त से कृष्ण भक्ति करते हैं, तो वह (कृष्ण) आपके सारे दुख-दर्द और पाप को हर लेते हैं एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
भगवान कृष्ण स्वयं कहते भी हैं-
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिधतति सिद्धये।
यत् तामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेन्ति तत्वत:।।
हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको यथार्थ रूप में जानता है।
उनका कहना है कि जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूं।
परंतु भगवान कृष्ण की भक्ति किसी भी रूप में की जाए, ध्यान करके, भजन करके, जाप करके अथवा मानसिक, सच्चा भक्त उनको अवश्य प्राप्त करता है।
स्वयं कृष्ण कहते है- मेरे भक्त मुझे चाहे जैसे ही भजे, अंत में मुझको ही प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य जिस भाव से स्मरण करता है वह अवश्य ही प्रभु को उस रूप में पाता है।
मन्मना भव मभ्दक्तो मघाजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यासि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।
अर्थात् मुझमें मन लगा, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें स्थापित करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।